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संभल में 1857 से पहले की बावड़ी का खुलासा: इतिहास के गहरे राज

संभल, उत्तर प्रदेश—संभल जिले के चंदौसी क्षेत्र से एक अहम और ऐतिहासिक खुलासा हुआ है। जहां एक ओर राज्य और देश में ऐतिहासिक धरोहरों को संरक्षित करने की कवायदें चल रही हैं, वहीं संभल में हाल ही में एक दो मंजिला बावड़ी का पता चला है, जो 1857 से भी पहले की है। यह बावड़ी उस इलाके की सियासत और इतिहास से जुड़े कई सवालों का जवाब देती है, और क्षेत्र के लोगों के लिए यह एक बड़ा ऐतिहासिक धरोहर बन चुकी है।खुदाई में मिला ऐतिहासिक सबूतसंभल के चंदौसी इलाके के लक्ष्मणगंज क्षेत्र में हाल ही में एक दो मंजिला बावड़ी की खोज हुई। इस बावड़ी को बुलडोजर द्वारा अतिक्रमण हटाने के दौरान खोजा गया। यह बावड़ी भूमिगत थी और जमीन के नीचे से निकलते हुए इसके कुएं, कमरे और सुरंग जैसी संरचनाएं भी सामने आईं। यह खोज स्थानीय प्रशासन और पुरातत्व प्रेमियों के लिए एक चौंकाने वाली घटना रही, जिसने इलाके के ऐतिहासिक महत्व को फिर से उजागर किया।स्थानीय निवासियों के अनुसार, यह बावड़ी करीब 150 साल पुरानी है और माना जा रहा है कि इसका निर्माण 1857 से पहले किया गया था। चंदौसी का लक्ष्मणगंज इलाका उस समय हिंदू बहुल था और यहां सैनी समुदाय की आबादी काफी ज्यादा थी। लेकिन समय के साथ यहां हिंदू समुदाय के लोग धीरे-धीरे पलायन कर गए और आज इस इलाके में मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक हो चुकी है।बावड़ी का ऐतिहासिक महत्वलक्ष्मणगंज इलाके में पाए गए इस बावड़ी का इतिहास काफी रोचक है। स्थानीय मान्यता के अनुसार, यह बावड़ी कभी “बिलारी की रानी” सुरेन्द्र बाला द्वारा बनवायी गयी थी, जो 1857 की क्रांति से पहले क्षेत्र की शाही परिवार की सदस्य थीं। सुरेन्द्र बाला ने इस बावड़ी के पास कई कमरे और एक कुआं भी बनवाया था, जिससे पानी की आपूर्ति होती थी। समय के साथ यह संरचना समय के गर्त में चली गई और आज तक इसकी उपस्थिति किसी ने नहीं पहचानी थी।बावड़ी का ऐतिहासिक संदर्भ इस इलाके की सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाता है। रानी सुरेन्द्र बाला की पोती शिप्रा गेरा ने भी इस बावड़ी से जुड़ी अपनी पुरानी यादें ताजा कीं और बताया कि वह बचपन में इस बावड़ी के पास खेलती थीं। हालांकि, समय के साथ यह बावड़ी ध्वस्त हो गई और इसके बारे में अधिक जानकारी नहीं मिल पाई थी।संरचना की खुदाई और संरक्षण की प्रक्रियाशनिवार दोपहर को नगर निगम के कर्मचारी और दो जेसीबी की मदद से बावड़ी की खुदाई की गई। 45 मिनट की मेहनत के बाद बावड़ी की दीवारें बाहर आईं, जिससे यह साफ हो गया कि यह एक प्राचीन संरचना है। सफाई और खाद्य निरीक्षक प्रियंका सिंह ने बताया कि खुदाई मैन्युअल रूप से की जा रही है, क्योंकि मशीनों के इस्तेमाल से संरचना को नुकसान हो सकता था। इस दौरान 40-50 मजदूरों की टीम ने मैन्युअल रूप से काम किया, जिससे बावड़ी को अधिक नुकसान नहीं हुआ।इस बावड़ी की खुदाई के दौरान स्थानीय लोगों ने इसकी ऐतिहासिक महत्व को समझा और यह माना कि यह संरचना हिंदू संस्कृति से जुड़ी हुई हो सकती है, जो उस समय की जल प्रबंधन प्रणाली का अहम हिस्सा थी।तुष्टीकरण की राजनीति और ऐतिहासिक सत्यसंभल में हो रही इस तरह की खोजों को लेकर कुछ राजनीतिक प्रतिक्रियाएं भी आ रही हैं। कुछ लोग इस घटनाक्रम को तुष्टीकरण की राजनीति से जोड़ते हुए इसे दलगत राजनीति का हिस्सा मानते हैं। वहीं, इस बावड़ी और अन्य ऐतिहासिक स्थलों की खोजें यह साबित कर रही हैं कि यह क्षेत्र कभी हिंदू बहुल था और यहां हिंदू संस्कृति और परंपराओं का विस्तार था।ऐतिहासिक धरोहरों की खोजें और उनके संरक्षण से यह संदेश भी मिलता है कि हमें अपनी सांस्कृतिक धरोहरों को बचाने की दिशा में कदम उठाने की आवश्यकता है। ये खोजें उन नेताओं और दलों के लिए भी एक संदेश हैं जो केवल अपनी राजनीति चमकाने के लिए ऐतिहासिक तथ्यों को अनदेखा करने की कोशिश करते हैं।भविष्य में संरक्षित होगा क्षेत्रजिला मजिस्ट्रेट राजेंद्र पेंसिया ने इस बावड़ी की संरचना को संरक्षित करने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाने की बात कही है। उनका कहना है कि इस बावड़ी के ऐतिहासिक महत्व को ध्यान में रखते हुए इसके संरक्षण की प्रक्रिया जल्द शुरू की जाएगी। साथ ही इस क्षेत्र के पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए भी योजना बनाई जा सकती है।संभल की यह ऐतिहासिक खोजें न केवल इस क्षेत्र के इतिहास को पुनः उजागर करती हैं, बल्कि यह यह भी साबित करती हैं कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर, चाहे वह धार्मिक हो या ऐतिहासिक, हमारे समाज का अहम हिस्सा हैं।By- Sajal Raghuwanshi Reporting for True To Life

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