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एक तरफ जन्माष्टमी की रौनक दूसरी तरफ चेहल्लुम का जुलूस, काशी की गंगा जमुनी तहजीब हुई चरितार्थ

सबसे प्राचीन नगरी मानी जाने वाली काशी वैसे तो अपने बहुत से चीजों के लिए विश्व प्रसिद्ध है, जैसे अर्धचंद्रा घाटों के लिए, बाबा विश्वनाथ मंदिर के लिए, यहां की संकरी गलियों के लिए, यहां के लोगो के अनोखे अंदाज के लिए, यहां के अनोखे खान पीन के लिए पर इन सब के अलावा भी एक चीज है जो विश्व प्रसिद्ध है, वो है गंगा जमुनी तहजीब, काशी ही एक ऐसा शहर है जिसने गंगा जमुनी तहजीब शब्द की उत्पत्ति की काशी की हिन्दू मुस्लिम एकता की मिशाल पूरी दुनिया देती है, जहां एक तरफ पूरे देश में धर्म के नाम पर लोगों के सर काट दिए जाते है, घरों को जला दिया जाता है, वही काशी में गंगा जमुनी तहजीब की मिशाल पेश की जाती है, काशी में जहां मुस्लिम सावन में कावरियों को कड़कती धूप में शरबत पिलाते है तो वहीं काशी के हिंदु रमजान के पाक महिने में रोजदारों के रोज़ा खुलवाते हैं , काशी एक ऐसा शहर है जहां लोग एक दूसरे की मदद धर्म देखकर नहीं करते हैं। काशी की गंगा जमुनी तहजीब तब और चमक जाती है, जब हिंदू – मुस्लिम के त्यौहार एक साथ पड़ जाते हैं, इस बार भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला, जहां एक तरफ श्री कृष्ण जन्माष्टमी की रौनक थी तो वही दूसरी तरफ चेहल्लुम का शोक भी और इस बार भी काशी की गंगा जमुनी तहजीब बखुबी देखने को मिली, जहां एक तरफ जन्माष्टमी की झांकियां सजी थी, तो वहीं दूसरी तरफ़ चेहल्लुम का जुलूस भी सड़कों पर बिना किसी दिक्कत के निकल रहा था। यहीं सब बातें काशी को दूसरे शहरों से अलग बनाती है ।

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 क्या है चेहल्लुम की प्रथा

True to life से बात करते हुए बीबी उल्फत हाटा के मौलाना गुलज़ार मौलाई बताते हैं की “चेहल्लुम, हज़रत इमाम हुसैन की शहादत को याद करने के लिए मनाया जाने वाला एक त्योहार है. यह त्योहार मोहर्रम महीने के 40वें दिन मनाया जाता है. इस दिन, इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत को याद किया जाता है, इस्लाम में 40 एक पवित्र संख्या है मृतकों की मृत्यु के 40 दिन बाद उन्हें याद करना एक लंबे समय से चली आ रही इस्लामी परंपरा है,चेहल्लुम शोक का त्योहार होने के साथ-साथ साहस, त्याग, और बलिदान का भी प्रतीक है,यह त्योहार, इमाम हुसैन के जीवन और शिक्षाओं से प्रेरणा लेने का संदेश देता है,कर्बला शहर में इस्लामिक कैलेंडर 10 मुहर्रम 61 हिजरी (10 अक्टूबर, 680 ईस्वी) में हुई थी. यह लड़ाई पैगंबर हजरत मुहम्मद सल्लाहो अलैहे वसल्लम के नवासे हजरत इमाम हुसैन इब्न अली रजि. के समर्थकों, रिश्तेदारों के एक छोटे समूह और उमय्यद शासक यजीद प्रथम की एक सैन्य टुकड़ी के बीच हुई थी. इस लड़ाई में हजरत हुसैन रजी,तथा उनके परिवार के पुरुष सदस्य व उनके साथी शहीद हो गए थे, इस लड़ाई में एक तरफ हजारों यजीदी सैनिकों का लश्कर था, जो एक ऐसी हुकूमत को मानते थे, जहां हर जुर्म व अत्याचार जायज था, वहीं, दूसरी तरफ इमाम हुसैन की अगुवाई में 72 लोगों का काफिला था, जो हक के लिए सब कुछ कुर्बान करने को तैयार था. हजरत इमाम हुसैन सच्चाई के लिए शहीद हो गए, लेकिन यजीदों की नापाक इरादों के समक्ष नतमस्तक होना कबूल नहीं किया. उन्होंने बताया कि हजरत जैनुल आबेदीन ने मदीना से वापसी के दौरान कर्बला पहुंच शोहदा ए कर्बला के कब्रों की जियारत (दर्शन) की”।

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 काशी का सबसे बड़ा चेहल्लुम का जुलूस –

अंजुमन इमामिया के संयोजन में बनारस का सबसे बड़ा चेहल्लुम का जुलूस पूरे सौहार्द के साथ अर्दली बाज़ार के इमामबाड़ा से निकाला गया, जो शहर के कई इलाकों से होकर गुजरा ।

 हुसैन की कुर्बानी पूरे इंसानियत के लिए थी –

True to Life से बात करते हुए मौलाना गुलज़ार मौलाई बताते हैं की “एक हिंदू लेखक डॉ राधा कृष्णा जिन्होंने कहा था की हुसैन की कुर्बानी किसी धर्म के लिए नही थी, किसी जाति विशेष के लिए नही थी, उनकी कुर्बानी सिर्फ इंसानियत के लिए थी”।

 बनारस से अभय के द्वारा

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